Sunday, April 17, 2011

yeh jihad nahi hai

यह  जिहाद  नहीं  है....!
यह जिहाद नहीं है ...
कहता है जो  बार - बार ... बस !
कुछ मिनट और इन्तेजार करो 
गुजरात के  बदले के लिए .../ अल्लाह के लिए ...
मौत का  खौफ्फ़  और  दहशत  महसूस  करेंगे / यहाँ लोग 
रोक  सकते हो तो रोक लो /इस हमले को 
नहीं तो कबूल  करो कलमे को ...
भला  ये शब्द किसको अच्छे लगेंगे 
जो यह सुनेंगे ?
जबकि मेरी  नजर में तो
बस्ती के आसपास एक  नहीं कई घर 
गैर मुस्लिमों  के बसते हैं 
बरसों बरस से /वो साथ रहते हैं
हम ईद,दशहरा और होली साथ-साथ मनाते हैं 
फिर यह कौन  ?हम् सब  के 
दिलों के दरीचे  में  आ कर छिपा  बैठा है 
हम  जिसे  नहीं जानते / वो हम से रूठा है .
सदियों के रिश्तों को कर रहा रक्तरंजित 
एक साजिश के  तहत  सब कुछ करना चाहता है 
नई  शक्ल  में परिभाषित 
एक -दुसरे के  दिलों  में पनपने  लगी हैं
आशंकाओं  की बेलें 
जाने- अनजाने मन में  ख्याल सा गुजरता  है 
खून  की होली हम भी क्यूं नहीं खेलें ?
जबकि
हम सब  ने  न जाने कितनी बार /
कितनी  बार पढ़ा है धरम ग्रन्थों  में 
इंसानियत का पाठ
कोई मजहब नहीं देता /किसी को  कत्लेआम का अधिकार 
फिर  कौन बहाने पर उतारू हो रहा
एक -एक इन्सान  का खून ?
यह कैसा जूनून ?
ये कैसी शहादत ? क़ि
मासूम बच्चों  तक के गले में पहनाई जा रही हैं 
कारतूस  क़ि मालाएं 
जिन क़ि उम्र इतनी के  उन को गोद में 
खेलायें / हम खोल रहे उन के दिलो दिमाग में 
नफरत क़ि पाठशालाएं 
सच तो यह है क़ि कुरानी आयत हों  या कोई नबी /प्य्गम्बर
किसी ने नहीं दिया बन्दों को कभी यह हुक्म 
मैं पूछता हूँ क्या वाकई  तुम जानते हो 
जिहाद के  मायने ?
नही तुम हकीकत से हो अभी तक अनजाने 
वरना तुम आपनो से ही दोयम दर्जे  का ब्यवहार क्यूं 
हो करते हो ?
तुम्हारी तो दुआ होनी चाहिय  क़ि एय ... खुदा 
तू हम सबको विश्वशांति का जरिया बना 
हमारी कानों  ने कुरान क़ि हर आयात को है सुना 
हम  को नहीं करना  पूरा
सब के इस्लामीकरण का कोई सपना 
यह मेरा नहीं ...तुम जिस मजहबी किताब को लगा कर
सीने से खाते हो रोज कसमें 
उसका है यह कहना 
किसी के दिल मे बसने के लिय जरुरी है 
उसकी बातें सुनी जाएँ 
नजरंदाज किये जाएँ  
अतीत के खंडहर 
शरू  हो  रिश्तों का एक नया सफ़र 
हम करें  दस्तखत
खुले आसमान के नीचे 
चांदनी से पुररोशन हों / जब मोहब्बत  के बागीचे
ऐसा हो हमारे 
ख्वाबों का एक शहर 
जहाँ  प्रेम और चाहत क़ि कंदीलों  से 
झिलमिल सितारों सा दिखे  हर एक  घर ....!

Saturday, February 19, 2011

जरा इस ओर भी ध्यान दें ...!
एक ओर मोबाइल कम्पनियां अपने प्रोडक्ट को  एक दुसरे से बेहतर बता कर खरीदार को लुभा रही हैं तो दूसरी ओर उस का गला भी प्रेम से काट रही हैं .आप को भी पता होगा की जब आप सो रहे होते हैं तो मोबाइल पर देर रात एक एस एम् एस कर कालर टयून या म्यूजिक स्टेशन सर्विस ज्वाइन करने  की अपील की जाती है ओर आप को कुछ  भी मालूम नहीं होता है . सुबह के वक़्त जब आप की नींद टूटती है तो पता चलता  है क़ि रात  के   एस ऍम एस के साथ ही एक दूसरा  कॉल भेज कर आप का  रुपया काट लिया   गया  हैं ओर आप को पता भी नहीं है सुबह  जब आप कॉल के लिए सेल उठाते हैं तो पता चलता है की टॉक टाइम के रुपए बाकी नहीं बचे हैं. अब आप कॉल सेण्टर से पूछते हैं या  तो गालिया ओर अनाप शनाप बकने हैं तो उसके  बाद बिना किसी तर्कसंगत जवाब के सेल रख दिया जाता है. ऐसा रोज ही लाखों कस्टमर के साथ घटना होती है  पर आपने कभी सोचा है क़ि  कम्पनी  के इस धांधली के विरुद्ध सब को आवाज उठानी चाहिय ? ख़ामोशी और नजरअंदाज  करने की आदत शोषण ओर जुल्म को और हाथ लम्बे करने की आदत को बढ़ाती है ...तो आइये हम सब  जहाँ भी हों इस तरह की हेर्क्तों  का पुरजोर ढंग से विरोध करने की शुरुआत  अभी से क़र दें .इस मुद्दे पर आप के विचारों का भी स्वागत है .email; kathasagareditor@gmail.com mobile;09570146864/08969974239

Friday, February 18, 2011

चांदनी   रातों में ...!

आओ साथ चलें 
शबनमी चांदनी रातों में 
चाहत की कंदीलें जलें 
कसमें लें 
हवा में लहराय आँचल तेरा
जज्बातों का लगे 
परचम चेहरा तेरा 
मेरा दिल नहीं कोई बुतकदा 
जालिमों को कबूल कर लें 
अपना खुदा 
तहरीरी चौक हो या मर जाने का होसला 
जख्मों पर  चलता जब खंजर 
दिल में मचलता
खवाबों का एक समंदर 
हम तो बाज़ी जीत ही गए 
अब तुम सोचो!
क्या- क्या बचा तुम्हारे अंदर 
हम तो चले  चाँद की नगरिया 
करने प्रेम की बतिया 
प्रेम के सबूत नहीं होते 
केवल खतूत 
डर कर बीच राह में 
साथ छोर मत जाना
आओ साथ चलें 
दो पल संग जी लें....!

 
 

Sunday, February 13, 2011

यादों  के चिराग  

तुम्हारा मुस्कुराना
साथ साथ पलाश का खिलना
मैं रहूँ न रहूँ /तुम  घर आती रहना
जब तुम आओगी ...
जल उठेंगी तमाम रोशनियाँ / 

और यादों के चिराग
हवाएँ /बन सदायें /मन के राग
महक - महक मदमस्त ख्वाब
तुम मानो या न मानो
मैं मान  लूँगा इसको  ही
अपनी मुहब्बत का एक जवाब
सच  तब  पूरा होगा मेरा
ख्वाब...!

Saturday, February 12, 2011



दो  जिस्म एक जान
अजीब हादिसा है ये
चुपके -चुपके
न जाने कब /बस गई दिल कि बस्ती
समंदर कि लहरों सी
मचल- मचल सरगोशियाँ
करने लगीं हवाएं /दो जिस्म एक जान हुई
न जाने कब ?
मेरी हस्ती /या खुदा...
एक हवा का स्पर्श /
कि तरह ही तो
नजरों के सामने से गुजरा था
वो
अब जिसको देखने को आँखें भटकतीं
इधर - उधर
कहीं यह मेरी मोहब्बत का आगाज तो नहीं ?
या रब /पार लगाना तू मेरी
इस सफ़र कि कश्ती ...!
अपनी कही  हर एक बात...

खामोशियों कि ओढ़  ली है
चादर मैने
तमाम तमन्नाएँ दफ़न कर दी मैने
जब से रिश्तों से किनारा किया
तुम ने
कितने बेदिल /बेरहम होते 
मर्द जात
कितनी जल्दी भुला देते हो /
अपनी कही हर एक बात
एक मैं /
अब भी दहलीज पे
रखना नहीं भूलती
एक रोशन चिराग /आखिर मै ठहरी औरत जात
काश!
तुम समझ सकते मेरे जज्बात ......!

मै  पल- पल...!
मै तनहा कहाँ हूँ /तुम्हारे यादों कि महकती
सदायें साथ जो होती हैं
और उस कमरे मै
एक  जिस्म ही तो होता है बिस्तर पे
मैं तो होती हूँ सपनो के शहर मैं पल -पल तुम्हारे साथ
फिर भी खुली रखती हूँ
तमाम खिर्कियाँ मैं / ताकि एक चाँद से पहले
देख सकूँ /महबूब का चेहरा / जिससे जहाँ की हर शय से
रिश्ता लगे गहरा
सुच कहती हूँ
तुम से/ यकीं करो या न करो ...

मेरा दिल कहता है ...!
हवाओं के जोर से
शाखें क्या झुकीं
लगा पलकों के दरम्यान
बिज्ल्याँ  चमकीं
ये पल दो पल
किसी करामात से कम तो नहीं
तुम चाहे जितनी दूर रहो
मेरा दिल कहता है की तू है
यहीं कहीं
मेरे हमनशीं...!