Saturday, February 12, 2011

दो  जिस्म एक जान
अजीब हादिसा है ये
चुपके -चुपके
न जाने कब /बस गई दिल कि बस्ती
समंदर कि लहरों सी
मचल- मचल सरगोशियाँ
करने लगीं हवाएं /दो जिस्म एक जान हुई
न जाने कब ?
मेरी हस्ती /या खुदा...
एक हवा का स्पर्श /
कि तरह ही तो
नजरों के सामने से गुजरा था
वो
अब जिसको देखने को आँखें भटकतीं
इधर - उधर
कहीं यह मेरी मोहब्बत का आगाज तो नहीं ?
या रब /पार लगाना तू मेरी
इस सफ़र कि कश्ती ...!

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